ज्वालपा धाम की महिमा पौराणिक और लौकिक हैं
स्कंध पुराण के अध्याय 168 में एक कथा है कि
पूर्वकाल में दैत्यराज पुलोम की पुत्री शची अपनी सखियों के साथ हिमालय की निचली पहाड़ी उपत्यकाओं में अपनी सखियों के साथ विचरण कर रही थी।तभी उसने आकाशमार्ग से एक आकर्षक युवक को जाते हुए देखा। युवक को देखते ही शची उस पर मोहित हो गई और सोचने लगी काश! यह युवक उसका पति होता। वह अपने विचारों में लीन थी। उसी समय महर्षि नारद वहां पर आते हुए दिखाई दिए। निकट पहुंचते ही शची ने महर्षि को प्रणामकर उत्सुकतावश अपने मन की बात बताई। नारदमुनि ने कहा यह काम सरल नही है। जो आकाशमार्गी युवा आपने देखा है, वह देवराज इंद्र है। इस काम में सफलता के लिए तुम्हे इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी पार्वती की तपस्या करनी होगी। पार्वती जी यदि प्रसन्न हो गई तो संभव है आपकी मनोकामना पूर्ण हो जाय। शची ने नारद जी की बात मान ली और पराशक्ति पार्वती देवी की तपस्या में बैठ गई। एक दिन पार्वती देवी एक दैदीप्यमान ज्वाला के रूप में इसी स्थान पर अवतरित हुई। उसी समय शची को आकाशवाणी सुनाई दी- शची मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। मांगो तुम्हे क्या वर चाहिए? शची ने विनय पूर्वक कहा
है विश्व विभावनी देवी माता! मेरी कामना है कि देवराज इंद्र मेरे पति हों। देवी पार्वती ने कहा तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो, और भविष्य में जो भी इंद्राणी के पद प्राप्त करेगी वह शची ही कहलाएगी। माँ के प्रकाशमय तेज़ के फलस्वरूप शची ने परम सुंदरी का रूप धारण कर लिया। देवराज इंद्र स्वयं इस स्थान पर आए और शची से विवाह कर उसे इंद्राणी के पद दे दिया। ऐसी मान्यता है कि ज्वाला अवतरित होने से ही इस धाम का नाम का नाम ज्वालपा धाम पड़ा। देवताओं ने माँ पार्वती से प्रार्थना की कि वह ज्वाला रूप में सदा यहीं निवास करे।
ज्वालपा धाम में शची ने मनवांछित पति पाने के लिए तपस्या की थी। शची की मनोकामना पूर्ण हुई थी। आज भी अनेक विवाह योग्य कन्याएं मनवांछित पति की कामना के साथ इस मंदिर में आकर माँ ज्वालपादेवी की पूजा अर्चना करती हैं।
ग्राम खैड़ के पंडित भवानी दत्त सती थपलियाल पहले गढ़वाली नाटककार के रूप में स्थापित हैं। उन्होंने गढ़वाली भाषा मे प्रथम नाटक- “जय विजय” (1911में) लिखा और प्रह्लाद नाटक 1913 में मंचन भी कर दिया। प्रह्लाद नाटक 1930 में प्रकाशित किया। प्रह्लाद नाटक पुस्तक में पंडित भवानी दत्त थपलियाल जी ने अपनी वंशावली दी है। इसी प्रसंग में उन्होंने ज्वालपा देवी मंदिर की स्थापना और ज्वालपा सेरा के बारे में भी लिखा33 है। उनके लिखे इस प्रसंग को यथावत दिया जा रहा है-
“एक समय गढ़वाल के पंवार वंशी राजा ने शत्रुओं से पीड़ित होकर ज्वालपा देवी की शरण ली और देवी ने अपने भक्त की रक्षार्थ किसी अन्य देश से एक कफोला बिष्ट के नमक के थैले के अंदर आकर जहां पर अब मौजूद है, अचल हो गई। जबकि वहां पर थैला किसी से नही हिला तो बिष्ट ने थैला खोलकर उसमे से देवी की प्रतिमा को निकालकर वहीं स्थापित करके राजा के पास जाकर सब हाल कह सुनाया, उसी रात को राजा के स्वप्न में ज्वालपा देवी ने कहा कि मैं तेरी रक्षार्थ चौंदकोट गढ़ी के नजदीक पटलेश्वर (पटालिका) महादेव के समीप मंदाकिनी (नयार) गंगा के तट पर स्थापित हो गई हूं, तू वहां पर मेरा मंदिर और पूजा का प्रबंध कर तब अपने सब शत्रुओं को जीतकर केदारखंड इत्यादि का निर्भय राज्य करेगा। राजा ने उसी समय अपने पुरोहित सोमनाथ सती थपल्याल को चौंदकोट गढ़ी भेजकर चौंदकोट इत्यादि कई परगना का फौन्दार अर्थात कुल मुंतजिम मुकर्रर करके ज्वालपा देवी के मंदिर और पूजा के लिए पचासों गांऊ जागीर देकर उसका कुल प्रबंधकर्ता बनाकर भेज दिया। पंडित सोमनाथ जी ने चौंदकोट गढ़ी आकर खैड़, सिमतोली, पंचुर, मासों इत्यादि अनेक गांव बसाए और अपना जेष्ठ पुत्र धामजी को पंचुर सिमतोली में बसाकर मुल्क का फौन्दार बनाया। और कनिष्ट पुत्र पंडित दहस जी को ज्वालपा देवी की पूजा और जागीर का मुंतजिम मुकर्रर करके खैड़ में बसाके मुआफीदार बनाया। बाद को धाम जी ने जेष्ठ पुत्र पंडित रुद्र देव जी को मुल्की फौन्दार बनाकर पंचुर में बसा दिया और उसका मदगार अपना तीसरा पुत्र पंडित देवेंद्र जी को करके मासों में बसा दिया। बाकी दूसरा पुत्र पंडित सदानंद जी को अपने छोटे भाई पंडित दहस जी को मददगार देकर सिमतोली से ज्वालपा देवी जागीर में शरीक कर दिया। इसी इंतजाम के बमोजिब खैड़-सिमतोली के थपल्याल ज्वालपा देवी की पूजा में जागीर खाते चले आते थे परंतु सोलहवीं शताब्दी के शुरू में अन्य सरोला जातियों ने इन्हें बढ़े चढ़े देखकर देवी के पुजारी होने से लिंगचटा कहकर उपहास करने लगे इस कारण से खैड़ सिमतोली के थपल्यालों ने देवी की सर्वश्रेष्ठ पूजा जो नवरात्रों की मानी जाती है बतौर सिरगोही आप करने लगे और मंदिर व जागीर का कुछ आयव्यय अपने हाथ मे रखा और बाकी सालभर की पूजा के लिए अपनी तरफ से एक रामदेव सारस्वत को मुकर्रर करके अणेथ में बसा दिया और ज्वालपा का सेरा देवी पूजा के लिए उसके सुपुर्द कर दिया तब से उसकी संतान अणथ्वाल कहाती है जो कि सिवाय नवरात्रों के बाकी कुल साल की पूजा ज्वालपा देवी की वर्तमान समय तक करते चले आये हैं।।”
पुराने समय मे जब उत्तराखंड में सड़कें नही थी यातायात के साधन नही थे, उस काल तीन वस्तुओं के लिए यहां के लोग नगीना, धामपुर या नजीबाबाद पैदल जाकर, सामान सिर में ढोकर लाते थे। ये तीन वस्तुएं थी – नमक, गुड़ और कपड़े। ढोकर लाने को ढाकर कहते थे। इनका रास्ता बांघाट, द्वारीखाल, डाडामंडी से होकर नजीबाबाद की ओर जाता था। ऐसी ही एक ढाकर में कुछ लोग जो मवालस्यूं- खातस्यूं की तरफ के गांवों से थे, वापसी में बांघाट से नयार नदी के किनारे किनारे चलते हुए आमकोटि (ज्वालपा सेरा) की ओर चल पड़े। इस समूह में खैड़ गांव के दयानंद थपलियाल और अगरोडा गांव के बिष्ट और एक रावत ढाकरी भी थे। जब चलते चलते वे थक गए तो पश्चमी नयार नदी के तट पर आमकोटि में ये लोग विश्राम करने के लिए रुके। विश्राम के बाद जब अपने अपने गांव की ओर जाने के लिए उठे और दयानंद जी ने सामान से भरा थैला (ढाकर) उठाना चाहा तो थैला उठाया न जा सका। कारण जानने के लिए थैला खोला तो उसमें एक मातृपिंडी (गोल पत्थर की पिंडी) मिली। जिसे उन्होंने निकाल कर किनारे पर रख दिया। कुछ लोगों का मत है कि अगरोडा के कफोला बिष्ट के भारा (बोझ) में माँ ज्वालपा आई थी। पिंडी को बाहर निकालते ही बोझ एकदम हल्का हो गया। सभी ढाकरी अपने अपने गाँव की ओर चल पड़े। रात को देवी सह यात्रियों के सपने में आई और बोली- मैं तुम्हारी देवी ज्वालपा हूँ। मैं तुम्हारे समान के साथ पिंडी के रूप में आई हूँ। मुझे यह स्थान बहुत प्रिय लगा है तुम इस स्थान पर मेरा मंदिर बनाकर मुझे थरप (स्थापित) कर दो। उसके बाद यहां पर नबालका (पश्चमी नयार नदी) के किनारे पत्थरों का एक छोटा सा मंदिर बना दिया गया। जब मंदिर बना तो उस मातृ पिण्डिका (लोड़ी) को डोली में ले जाकर नबालका नदी में स्नान कराया और मंदिर में लाकर स्थापित किया। मातृ पिंडी को डोली में ले जाकर स्नान कराने वाले बिष्ट, नेगी, रावत और गुसाईं थे। इस प्रकार थपलियाल ज्वालपा देवी मंदिर के मूल पुजारी बने और इन सबकी इष्टदेवी ज्वालपा हुई।
स्कन्द पुराण के अध्याय 168 में नबालका अर्थात “कुंवारीनदी” की महिमा बताई गई है। इस नदी का एक नाम नारद गंगा और आधुनिक नाम पश्चिमी नयार नदी है। इस नदी को भी गंगा के समान पवित्र माना गया है। नबालका नदी का उद्गम दूधतोली पर्वत श्रृंखला का पश्चमी भाग है। प्राचीन काल मे यहां आयुर्वेद के ज्ञाता ऋषि च्यवन का आश्रम था। निकट ही पैठानी पुरी में एक सेठ की कन्या नबालका बहुत ही सुशील और तपस्वी स्वभाव की थी, जो च्यवन ऋषि की सेवा सुश्रुषा भी करती थी। ऋषि ने अपने दैवीय ज्ञान से उस बालिका का भविष्य बताया। उन्होंने कहा आनेवाले समय मे तुम गंगा समान पवित्र नदी के रूप में प्रवाहित होंगी। तुम्हारे जल से स्नान करनेवालों के पाप नष्ट होंगे तथ्या स्नान करने वालों को पूण्य प्राप्त होगा। इसलिए जवालपधाम आनेवाले भक्तगण इस पवित्र नदी में स्नान करने के बाद ही दर्शन करते हैं। यह बारहमासी नदी है। सतपुली के निकट पूर्वी और पश्चमी नयार नदी मिलती हैं। 22 किलोमीटर प्रवाहित होने पर इन्द्रप्रयाग निकट व्यासघाट में गंगा जी मे मिल जाती है।