विचार वह ऊर्जा बिंदु है जो शक्ति का काम करता है। बिल्कुल चाकू की तरह। एक सर्जन के हाथ मे हो तो जान बचाने के काम आता है और अनाड़ी के हाथ मे हो तो मर्डर करने की दुश्चिंता बनी रहती है। दुनियाभर के महान सामाजिक चिंतकों ने मानव धर्म को सर्वोपरि माना है। सभी चिंतन वर्गों ने स्वयं को एक नाम दिया और उसे “मेरा धर्म” के अहंकार की फूंक मार दी। उस फूंक को ही उन लोगों ने मंत्र बना दिया जो न चिंतक थे न विचारक। उस अहंकार में से एक नए विचार तत्व ने जन्म लिया “भला उसकी साड़ी मेरी साड़ी से अधिक सफ़ेद कैसे”?
जीवन को सुखी बनाने के लिए विश्व मे सभी जगह अपने अपने ढंग से चिंतन हुआ और अधिकतर लोगों ने भौतिकता को सुख माना। यूनान के दार्शनिक अरस्तू का शिष्य सिकंदर जिसके मन में विश्वविजयी होने का विचार चमका उसे भारत की आध्यात्मिक शक्ति की जानकारी थी। यूनान से व्यापारियों का एक दल जब भारत आ रहा था तो सिकंदर ने उस दल से कहा कि भारत मे बड़े चमत्कारी साधु संत मिलते हैं, लौटते हुए किसी ऐसे व्यक्ति को साथ ले आना। व्यापारी दल भारत आया, अपना काम किया जब लौटने लगा तो सिकंदर की बात याद आई। इधर उधर पूछताछ की, लेकिन सफलता नही मिली। वे चले जा रहे थे। गर्मी के दिन थे। दूर एक पेड़ के नीचे एक फक्कड़ का व्यक्ति लेटा था। वह मस्ती से बांसुरी बजा रहा था। व्यापारी उसके पास गए। उसे साथ चलने का निवेदन किया और कहा हमारे राजा आपको अपने दरबार में खुश रखेंगे। आप आनंद से रहोगे। मौज करोगे। उस फक्कड़ साधु ने कहा “तुम्हें क्या लग रहा है? क्या मैं आनंद में नही हूँ? जब मैं अपने आनंद में ही आनंदित हूँ तो मुझे किसी की चाकरी क्यों करनी है। मैं मौज में हूँ। मुझे मोज में ही रहने दें।”
हम प्रकृति में आनन्द ढूंढने की बजाय कृत्रिमता में आनंद ढूंढने लगे हैं। उसके लिए संस्कृति और विचारों को बेचने लगे हैं। जीवन कृत्रिम होने लगा है। मानवीय संबंध कागज के फूलों जैसे होने लगे हैं। मानवीयता की बजाय कार, कोठी, चरस, गांजा, व नशे में आनंद ढूंढने लगे हैं। पूंजीवाद ने विचार को भी व्यवसाय बना दिया। इस नवविचार ने भारत में राजनीतिकों को भी अपनी पेटी में बंद कर दिया। उदहारण- चुनाव जीतने के लिए प्रत्यासी को अपनी बोली लगानी होती है। खरीददार कोई प्रशांत किशोर मिल जाएगा। वह विचार बेचकर आपको बेच देगा और जनता आपको जीत देगी। सोचिए लोकतंत्र इसी को कहें?
यूक्रेन और रूस दोनों देशों में अधिसंख्य ईसाई धर्मावलंबी हैं वजह कोई बहुत बड़ी नही लेकिन अहंकार का विचार भोली भाली जनता का नरसंहार कर रहा है। प्रेम का प्रसाद बांटनेवाले, ईसाई प्रेम न बांट सके, शांतिप्रिय बतानेवाला इस्लाम शांति फैलाने की बजाय नरसंहार पर उतारू है। लाखों निरपराध लोगों को अमानवीय ढंग से मौत के घाट उतारते रहे। सत्य और अहिंसा के देश भारत मे झूठ मंडियां चल रही हैं। राजनीति और आध्यात्म दोनों को बाजारवाद ने डकार दिया। मानवीय विचार छोड़ कुछ लोगों ने विचारवाद के माध्यम से नेतागीरी अपना ली कुछ ने बाबागिरी। दोनों विचार बेच रहे हैं। मानवीय मूल्यों की बजाय बाजारवादी मूल्यों को बढ़ावा दिया जा रहा है। अहिंसा और अपरिग्रह के बौद्ध देशों में भगवान बुद्ध के विचारों के विपरीत अनैतिक राज्यविस्तार, अमानवीय रासायनिक उत्पाद और अमानवीय हिँसाओं के विचारों के बाजार चलाये जा रहे हैं। मानवता और सत्य निर्जल मछली की तरह दम तोड़ रहे हैं। मल्टी नेशनल कंपनियों ने समाज के मानवीय विचारों को ही नया मंतव्य बना दिया। नए विचारवाद का विस्तार किया ताकि उत्पादन बढ़े। “दिल मांगे मोर”। लोग ये माने कि सच्चा जीवन तो यही है। हमने अहंकार को पालकर मानवता को शर्मसार किया है, क्योंकि हमने मानवता की शिक्षा की बजाय स्मार्ट बनने की शिक्षा को ऐश्वर्य प्रदाता सुख में लिया है। जीवन के अंतिम पल की खबर नही धरती का पट्टा अपने नाम करवा रहे हैं। अहंकार यह भी है- मेरी स्वस्तंत्रता मेरी है, मैं कुछ भी करूं। पौधे में कलियां जब खिलने लगती हैं तो हर पंखुड़ी पीछे आने वाली पंखुड़ी के लिए स्थानदेती है। जीवन का सार तो यही है। ‘मेरा” शब्द होना ही वह अहंकार है जो अणु, परमाणु बम का बाजार बढ़ाता है, ताकि बाजार का विचारवाद कायम रहे।
ये विचार आपको छू जाय तो दूसरों को भेजें, बुरा लगे तो शांत मन से दुबारा पढ़ें।