सन 1970 तक ज्वालपा धाम में केवल माँ भगवती ज्वालपा देवी का मंदिर था। रास्ता भी पगडण्डी वाला था। दर्शनार्थी दिन दिन में आकर दर्शन, पूजा कर निकल जाते थे। पूरी घाटी सुनसान थी। इस घाटी को विकसित करने का विचार सबसे पहले श्री दिगम्बर दत्त थपलियाल को आया। वे मासों गयं के थे, 1962-63 में वे कीर्तिनगर में तहसीलदार थे। वे माँ ज्वालपा के अनन्य भक्त थे। उस काल में उन्होंने ज्वालपा देवी मंदिर में एक यज्ञ शाला का निर्माण करवाया। बाद में वे कीर्तिनगर में ही डिप्टी कलेक्टर प्रोन्नत हुए। श्री दिगम्बर दत्त जी का संपर्क में पौड़ी में अवकाश प्राप्त पोस्ट मास्टर श्री नारायण दत्त थपलियाल, सेवानिवृत्त डिस्ट्रिक्ट कोपरेटिव ऑफिसर श्री धर्मानंद थपलियाल से हुई। साथ ही सुरेशानंद जी थपलियाल भी जुड़े। ये सभी लोग अक्सर ज्वालपा देवी जाया करते थे। सभी के मन में था कि ज्वालपा धाम में कुछ जन सुविधाएं बढ़ाई जाएं। जनवरी-फरवरी 1969 में ये तीनों श्री सुरेशानंद जी से मिले और ज्वालपा ध्यम में कुछ विकास करने पर चर्चा करने लगे। सभी एक विचार के थे इसलिए शारदीय नवरात्रि में 19 अक्टूबर 1969 को समाज के बुद्धिशील प्रतिष्ठित लोगों को चिट्ठी भेजकर ज्वालपा धाम बुलाया गया और आम सभा आयोजित की गई। सभी सहभागियों नें विकासात्मक चर्चा में दिल से भाग लिया और उसी दिन “श्रीज्वालपा देवी मंदिर समिति पौड़ी गढ़वाल की स्थापना की साथ ही आम सभा ने कार्यकारिणी का गठन भी कर दिया ताकि कार्य संचालन को सुव्यवस्थित किया जा सके।
आज के थपलियाल आदिगौड़ ब्राह्मण हैं जो गौड़प्रदेश से विस्तार पाकर सम्पन्न मालवा क्षेत्र में जीविकोपार्जन करते थे। सत्य निष्ठ होने के कारण इनकी उप जाति सती हुई। धारानगरी के राजा वाक्पति का सौतेला भाई कनकपाल था जो बदरीनाथ की यात्रा पर (887ई.) आया हुआ था। चाँदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप ने अपनी विवाह योग्य कन्या का विवाह युवराज कनकपाल परमार से कर दिया। अगले साल राजा ने अपनी राजगद्दी कनकपाल को सौंप दी और सन्यासी हो गए। राजा कनकपाल अपने साथ कुछ कार्मिकों को लाये थे। उनमें प्रमुख 12 जातियों के लोग थे। उनमें से राजपुरोहित सर्यूल आदिगौड़ सती थे। जब उन्हें थापली (आदिबदरी) में बसाया तो लोग इन्हें थापलीवाल या थापलियाल कहने लगे। मुखसुख आधार पर थपल्याल और बाद में अंग्रेज़ी के प्रभाव से थपलियाल हो गए। राजा अजयपाल ने 16वीं शताब्दी में गढ़वाल के सभी गढ़ों को जीतकर गढ़वाल राज्य बनाया 1517 ई. में उन्होंने श्रीनगर को राजधानी बनाया। इतिहासविद डॉ. शिवप्रसाद नैथानी ने अपने एक लेख मे लिखा कि श्रीनगर में उस समय ज्वालपा देवी का मंदिर था। यहां पर वर्ष में एक बार राजा की ओर से गढ़वाल का सबसे बड़ा मेला लगता था। बाद में वह मंदिर बाढ़ में बह गया। जब राजधानी श्रीनगर बनी तब राजकाज से जुड़े लोग भी श्रीनगर के निकटवर्ती गॉवों में बस गए। थपलियाल लोगों के कुछ परिवार खैड़, सिमतोली आदि गांवों में बसे। खैड़, चौरा और सिमतोली गाँव गूंठ (लगान माफ) गांव थे। राजा प्रद्युम शाह के राज-काल में (सन 1782/83 में) उन्होंने ज्वालपा सेरा को देवी के मंदिर में दिया बाती व नैवेद्य के लिए दे दिया था।
अंग्रेज़ी शासन काल मे अंग्रेज अधिकारी व हिमालयन गजेटियर के लेखक ई. टी. एटकिंसन ने हिमालयन गजेटियर वॉल्यूम II (जो कि NWF का वॉल्यूम XI में है) में जो नक्शा दिया है उसके बिंदु 24 पर श्रीनगर और बिंदु 26 पर ज्वालपा देवी चिन्हित है जिसमें लिखा है -समीप नगर कफोलस्यूं, राजा प्रद्युम्न शाह द्वारा दान में दिए गए। इसी में लिखा है इसकी पूजा थपलियाल करते हैं। हिमालय गजेटियर के खंड 3 व भाग 1 के पेज संख्या 796 के अनुसार श्रीनगर में राजा प्रद्युम्न शाह ज्वालपा मेला आयोजन करता था उस समय थपलियाल देवी के पुजारी थे। एटकिंसन गजेटियर (भाग 2 पृष्ठ संख्या 812) के अनुसार सन 1783 में तत्कालीन महाराजा प्रद्युम्न शाह ने इस मंदिर की शास्त्र विहित पूजा को निरंतर चलते रहने की स्थाई व्यवस्था की। महाराजा ने इन थपलियाल ब्राह्मणों को, (जिन पर इस मंदिर की पूजा व्यवस्था का पूरा भार था) श्रीनगर बुलाया और मंदिर से लगी 33.82 एकड़ सिंचित भूमि ज्वालपा सेरा को देव्यार्पित ( देवी को दान में) दी। इस संचित भूमि को तभी से ज्वालपा सेरा के नाम से जाना जाता है। इस ज्वालपा सेरा को गूंठ खेत (लगान माफ) कहा गया। ज्वालपा देवी इस भूखण्ड की स्वामिनी हो गई। इसकी उपज का एक तिहाई भाग अखंड जोत और नैवेद्य/ भोग पर व्यय करने और शेष दो तिहाई भाग खेती करनेवालों के लिए निर्धारित किया गया। सितंबर सन 1803 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया 1804 में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह देहरादून के खुड़बुड़ा में गोरखा युद्ध मे वीर गति को प्राप्त हुए। अंग्रेजों के साथ की संधि के अनुसार 1816 में नरेश सुदर्शन शाह ने टिहरी को अपनी राजधानी बनाया। ब्रिटिश गढवाल पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। खैड़ के थपलियाल पुजारी अपने कार्यों में अधिक व्यस्त रहने लगे। सन 1555 में पंजाब से एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार जब गढ़वाल आया तो राजा ने उस परिवार को जो जगह दी उसे अणेथ (अन्यत्र) कहा। इस प्रकार उस परिवार की स्थानीय पहचान अणथ्वाल हुयी। थपलियालों और अणथ्वालों में आपसी संबंध भी होने लगे। ज्वालपादेवी के थपलियाल पुजारियों ने एक रसोइया अणथ्वाल युवक से बात की कि वह ज्वालपादेवी मंदिर में दिया बत्ती की पूजा कर ले तो बड़ी पूजा के लिए हम आते रहेंगे। थपलियालों ने धीरे धीरे मंदिर आना कम कर दिया। अणथ्वाल पुजारी माँ ज्वालपा के भक्तों के गांव जाकर माता की भेंट और अग्याल ले जाने लगे। इस प्रकार अणथ्वाल पुजारी हो गए।
ज्वालपा धाम में जो जमीन है वह ज्वालपा देवी के नाम पर (देव्यर्पित) थी। पुजारी वर्ग ने किसी समय भू राजस्व रिकॉर्ड में ज्वालपा सेरा की भू-स्वामिनी ज्वालपा देवी का नाम हटवा कर समस्त सिंचित ज्वालपा सेरा को अपने परिवार के नाम कर दिया। इन परिस्थितियों में माँ ज्वालपा गौण हो गई। भक्त और पुजारी महत्वपूर्ण हो गए। 1969 ई. से सन 2000 तक ज्वालपा धाम में एक ही समिति थी- श्री ज्वालपा देवी मंदिर समिति। उसमें अणथ्वाल भी शामिल थे। वर्ष 2000 में पुजारी वर्ग ने एक अन्य समिति गठन की। इसका नाम है- “श्री ज्वालपा देवी सिद्धपीठ पूजा समिति”। समय समय पर मंदिर की व्यवस्थाओं को लेकर चिताएं होती रही। शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था तक गुहार लगाई गई। (1) इसमें 1920 का वाद संख्या 97/21, (2) 1 मई 1945 को जिला परिषद की बैठक में मंदिर समिति के गठन का निर्णय, (3) सन 1973 में पुजारी श्री कृपाराम अणथ्वाल द्वारा डी. एम. पौड़ी से मंदिर की पूजा व्यवस्थाओं में आ रही व्यवस्थाओं को दूर करने के लिये किया गया निवेदन, (4) मंदिर की व्यवस्था में सुधार के लिए 20 नवम्बर 1983 को पुजारी श्री जीतराम अणथ्वाल ने तत्कालीन विधायक श्री नरेन्द्र सिंह भंडारी के सभापतित्व में सार्वजनिक सभा आयोजित की। श्री देवी प्रसाद अणथ्वाल को इस संबंध में समस्या संबंधी पूरी आख्या मंदिर सुधार समिति के अध्यक्ष श्री बलवीर सिंह गुसाईं को दो महीने में सौंपने को कहा गया था, लेकिन इस पर भी कोई कार्यवाही नही हुई। (5) श्रीज्वालपा देवी सिद्ध पीठ पूजा समिति ने न्यायालय सिविल जज, अवर खंड पौड़ी गढ़वाल के न्यायालय में विभिन्न शिकायतों को लेकर एक वाद 14/1999 दर्ज किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पूजा समिति का कार्यक्षेत्र मंदिर की आंतरिक व्यवस्था, उसकी सुरक्षा, व पूजा अर्चना का कार्य संचालित करना है। न्यायालय नें प्रतिवादी श्री ज्वालपा देवी मंदिर समिति का कार्य परिभषित करते हुए कहा कि मन्दिर परिसर में सौंदर्यकरण व अन्य विकासोन्मुख कार्य करना है। निस्तारण वाद बिंदु संख्या 2 के अनुसार प्रतिवादी पक्ष की यह दलील कि यह मंदिर राजा प्रद्युम्न शाह द्वारा प्रदान किया गया था तथा थपलियाल लोग ही इसकी सेवा करते आये है जिस कारण वादी गण को वाद लाने का कोई अधिकार नही। इस संबंध में न्यायालय ने उदाहरण के माध्यम से बताया कि मंदिर सार्वजनिक स्थल होता है इसमें वादी या प्रतिवादी का हक नही होता। प्रतिवादी समिति मंदिर परिसर के विकास व सौंदर्यीकरण के लिए गठित की गई है, जिसके तत्वावधान में मंदिर परिसर में संस्कृत विद्यालय, छात्रावास, क्रीड़ास्थल, सम्पर्क मार्ग धर्मशाला व सौंदर्यीकरण कार्य किये गए हैं और भविष्य में भी प्रस्तावित हैं जिनमें वादी संस्था को कोई आपत्ति नही है।